आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची
रश्मि रविजा
भाग - 1
ओफ्फ़! कल शाम ही तो वह यहाँ आया है. पर ऐसा लग रहा है मानो हफ़्तों से नज़रबंद है यहाँ. कैसे रह पाते हैं लोग, भला इन छोटे कस्बों में? ठीक है पहले यहाँ एक आदिम बस्ती थी. पर अब तो काफी विकास हो चुका है. कहने को कॉलेज हैं, अस्पताल है, बैंक हैं, सरकारी कार्यालय हैं, पर सब जैसे चींटी की रफ़्तार से चल रहें हों. महानगरों की दौड़ती भागती ज़िन्दगी का आदी अभिषेक, तालमेल नहीं बिठा पा रहा था इस ऊंघते कस्बे के जनजीवन से बुरी तरह झुंझला उठा था. वह भी एक ही पागल है, क्या जरूरत थी उसे, यहाँ आकर यह सब भोगने की. अभी तो पूरे दो दिन बाकी हैं, लौटने में. अल्लाह ही मालिक है अब. बड़ा निष्ठावान बनने चला था. आँखों देखी रिपोर्ट दूंगा. अरे, इधर उधर से मैटीरियल इकट्ठा कर, भर देता दो तीन फुलस्केप कागज़. और क्या चाहिए मैगज़ीन वालों को, बस भाषा जरा चटपटी हो.
जितने तरीके से डांट सकता था डांट चुका अपने आपको. साथ ही निरुद्देश्य उसके पैर भी घिसट रहें थे. जिधर भी नज़र दौडाओ, लम्बी लम्बी पगडंडियाँ, घरौंदे से लिपे पुते घर और पीले रंग के सरकारी आवासों की कतार. एक ढंग का रेस्टोरेंट तक नहीं जहाँ अपनी पसंद का खाना तो दूर एक कप ढंग की चाय तक पी सके. और उस गेस्टहाउस का कुक सुब्हानअल्लाह !! कल से उसने ठीक से खाना तक नहीं खाया. लम्बे विदेश प्रवास के बाद, अब खाना तो उसे अपने घर का भी नहीं रुचता. पर एक आत्मीय स्पर्श की अनुभूति होती है, एक अपनापन सा महसूस होता है, जिसके लिए तरस गया था इतने दिनों.
शारीरिक कष्ट की परवाह नहीं उसे. चाहे जितना सता लो शरीर को. लेकिन मानसिक खुराक हमेशा मिलती रहनी चाहिए. उसमे व्यवधान आया नहीं कि एक बौखलाहट सी समा जाती है, पूरे तन बदन में. और यहाँ यही हो रहा. बुरी तरह ऊब चुका है वह. जितनी जानकारी इकट्ठी करनी थी, कर चुका. कल एक दो लोगों से मिलना है, फिर काम ख़त्म. पर ट्रेन तो परसों ही आएगी. कल शायद एक कार हायर कर पास के बड़े शहर चला जाए. फिर वहाँ से कुछ देखेगा.
यही सब सोचते, उलझते, खुद से लड़ते हुए चला जा रहा था कि उसने पाया, अरे! वह तो बाज़ार में आ गया. तभी दाहिनी तरफ जो नज़र गयी तो आश्चर्य में डूब गया. एक सुखद सिहरन सी दौड़ गयी पूरे शरीर में.. तो यहाँ मैगजीन सेंटर भी है. दूर से ही रंग बिरंगी पत्रिकाओं की छटा मोह रही थी उसे. पर हाँ, ये सारी पत्रिकाएं, अखबार तो छोटे शहरों में ही ज्यादा बिकते हैं. महानगरों में लोगों के पास वक़्त कहाँ है, पढने का. वह भी कहाँ पढ़ पाता है. बस कवर देख, उलट पुलट कर किनारे रख देता है. कि कल पढ़ेगा और वो कल कभी नहीं आता. व्यस्ततम ज़िन्दगी में जो पन्ने, अनछुए रह गए हैं, आज पूरे मनोयोग से उन्हीं का रसास्वादन करेगा.
मैगजीन सेंटर से ही लगी एक स्टेशनरी की दुकान थी. डेबोनेयर के नए अंक के पन्ने पलट ही रहा था कि एक नारी कंठ सुनायी दिया.... "दो नोटबुक और एक पेन्सिल बॉक्स भी दे दीजिये".... और उसके हाथ जहाँ के तहां रुक गए. ये आवाज़??.... ज़ेहन में एक खलबली सी मच गयी. एक झटका सा लगा और आद्यांत थरथरा गया वह. अचंभित निगाहें, अपने आप ही उस दिशा में उठ गयीं. लेकिन सिर्फ लहराता आँचल ही नज़र आया, चेहरा नहीं. आकृति जा चुकी थी. शरीर मानो भारहीन हो अपने आप ही समीप की कुर्सी पर निढाल पड़ गया. क्या सुना उसने?कान सही सलामत तो हैं, उसके? कहीं श्रवण शक्ति जबाब तो नहीं दे गयी, उसकी??
लेकिन ऐसा नहीं है. तभी तो सेल्समैन की घबराई हुई आवाज़ सुन पा रहा है, क्या हुआ साब आपको?तबियत तो ठीक है, आपकी??"
"अँ.. हँ.. वो जरा सर में चक्कर आ गया था. अब ठीक हूँ, इस मैगजीन के पैसे ले लो"... आवाज़ तो संभाल ली, उसने पर शायद चेहरे के भावों ने धोखा दे दिया. सेल्समैन की घबराहट भरी आवाज़ पूर्ववत ही रही. "नए आए लगते हो स्साब... चलिए मैं पहुंचा देता हूँ. या किसी और को साथ कर दूँ, स्साब?"
"ओ ss.. नो sss.... मैं बिलकुल ठीक हूँ,.. पास ही तो गेस्टहाउस है, चला जाऊंगा.... थैंक्स"... और हाथ हिलाता आगे बढ़ गया, अभिषेक. ओह, ये छोटे शहर वाले लोग, अब भी कितना शिष्टाचार निभाते हैं. इतने में उसके २, ४, ग्राहक छूट जाते. पर उसे परवाह नहीं. औए यही लोग महानगर में जा उसके सारे कायदे क़ानून सीख, संवेदनाविहीन हो जाते हैं.
कब उसने सड़क पार किया, कब गेट खोला, कब सीढियां चढ़ीं और कब अपने कमरे में पड़ी कुर्सी पर निढाल पड़ आँखें मींच लीं. कुछ मालूम नहीं उसे. शायद किसी अज्ञात शक्ति ने करवा लिया उससे यह सब. वरना उसकी सुध बुध तो जाने कहाँ चली गयी थी. पूरे समय एक ही वाक्य... नहीं वाक्य क्या था, यह तो अब याद भी नहीं. बस उस वाक्य की अनूगूंज मस्तिष्क में चक्कर काटती रही. कानों में लगातार कुछ प्रतिध्वनित होता रहा. शरीर के समस्त तार झनझना उठे. रोम रोम को झकझोर कर रख दिया इस आवाज़ ने.
ये आवाज़ तो??.. नहीं यह कैसे संभव है?... जरूर उसके कानों ने धोखा दिया है उसे... शची और यहाँ?... असंभव.... पर शची की आवाज़ और वो ना पहचाने?? यह भी तो संभव नहीं... और शची के नाम ने उन यादों के खंडहर पर पड़ी धूल जैसे एकबारगी ही हटा दी. और ध्वस्त महल का कंगूरा चमक उठा. चमक तो कब की भोंथरी पड़ चुकी थी पर उसके भीतर का ओज अभी बाकी था और शायद हमेशा रहेगा.
***
वे कॉलेज के शुरू के दिन थे. लाइब्रेरी में एक किताब में खोया था कि एक खनकती हुई आवाज़ आई... "सुनिए, वो 'शैडो फ्रॉम लद्दाख' आपके पास है क्या?"
उसने चौंक कर सर उठाया और बिलकुल हडबडा सा गया... अँ.. हँ.. है तो?.. क्यूँ??"
शची के चेहरे से कौंध कर विलुप्त होती हुई हंसी की रेखा उस से छुप ना सकी. किसी तरह सहज होते हुए आगे जोड़ा... "लेकिन आपको कैसे पता"
'वो लाइब्रेरियन कह रहें थे, तीन महीने से आपके पास ही है.... अगर पढ़ ली हो तो... " शची ने बात पूरी नहीं की.
"सॉरी कल ला दूंगा"
अपनी जगह पर लौट गयी शची. लेकिन फिर वह किताब में मन ना लगा सका. अभी एक महीने ही तो हुए हैं, शची को दाखिला लिए. लेकिन सब से एक आत्मीय सम्बन्ध सा स्थापित कर लिया है, उसने. लाइब्रेरी में भी आने के तीसरे दिन से ही नज़र आने लगी थी. आज पहली बार उस से बातचीत हुई. पर छात्र-छात्राओं के बीच खासी लोकप्रिय हो चली थी, शची.
वैसे, इसे ज्यादा महत्त्व, नहीं देता वह. देखता आ रहा है, यहाँ तो जैसे ही कोई नया चेहरा आया कि सब उसी के आस-पास मंडराने लगेंगे. कोई अपने पास सीट रख रहा है तो कोई कैंटीन लेकर जा रहा है. किसी ने किताबें दीं तो किसी ने नोट्स. उसके निहायत बोदे, चुटकुले पर भी छतफाड़ ठहाके लगाए जा रहें हैं. वैसे यह सब ज्यादा दिन नहीं चलता. जल्द ही अपनी रूचि, अपनी वेबलेंथ के हिसाब से नया चेहरा, अपने हमलायक चेहरे के ग्रुप में शामिल हो जाता है या कर लिया जाता है.
लेकिन इसके पहले लपकने की जो तैयारी चलती है. उस से खासी चिढ सी है उसे. अरे भई! जब साथ पढना है तो दोस्त भी तो बनेंगे उसके. इसके लिए इतनी अफरातफरी मचाने की क्या जरूरत है?लेकिन जो परंपरा चली आ रही है सो चली आ रही है. शची के साथ भी यही सब कुछ हुआ. बल्कि कुछ ज्यादा ही हुआ.
(क्रमशः)